आज की चिंतनधारा में संन्यास और कर्मयोग को अलग-अलग करके देखा जा रहा है। महर्षि अरविंद ने अपने साधना-प्रम में संन्यास को कोई स्थान नहीं दिया। उन्होंने कर्मयोग का ही विधान किया। इसी प्रकार कई विचारधाराएं तो संन्यास-विरोधी भी हो गई हैं। किंतु मैं संन्यास और कर्मयोग में कोई विरोध नहीं देखता। मेरे अभिमत से कर्मयोग से साधना का प्रारंभ होता है और संन्यास उसकी चरम अवस्था है। देहमुक्त अवस्था को प्राप्त करने के लिए संन्यास की स्वीकृति अनिवार्य है और संन्यास तक पहुंचने के लिए कर्मयोग की साधना से गुजरना अनिवार्य है। कर्मयोग के बिना संन्यास नहीं और संन्यास के बिना मुक्ति नहीं। फिर दोनों में विरोध कैसे हो सकता है। संन्यास से मेरा मतलब किसी वेशभूषा से नहीं है। वह तो मात्र संन्यास की परिचायक है। उससे न केवल औरों को संन्यास का परिचय मिलता है, स्वयं साधक को भी अपनी साधना का भान रहता है। भगवान महावीर ने श्रमण-वेशधारण के कारणों पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि संयम यात्रा के वहन के लिए तथा मुनि-स्वरूप के ग्रहण के लिए लोक में साधु-वेश का प्रयोजन है। इससे साधक को अपनी साधना का प्रतिपल ध्यान रहता है।   
इस प्रकार साधु-वेश का भी अपना महत्व और उपयोग है। किंतु संन्यास से यहां मेरा मतलब साधु-वेश से नहीं, आत्मा की उस स्थिति से है जब वह इंद्रिय-जगत से स्वयं ऊपर उठ जाती है। उस स्थिति में आए बिना कोई भी आत्मा अपना लक्ष्य पा नहीं सकती। कर्मयोग की साधना भी अकर्म की अवस्था में से गुजरती हुई साध्य तक पहुंचती है। यदि साधक का मन और इंद्रियां उसके वश में नहीं हैं, वह अरण्य में जाकर क्या करेगा? यदि उसका मन और इंद्रियां वश में हैं, फिर वह अरण्य में जाकर क्या करेगा? प्रश्न अरण्य और शहर का नहीं, जितेंद्रियता का है। जितेंद्रिय व्यक्ति के लिए अरण्य और बस्ती में कोई अंतर नहीं रहता।