जब हम दुखी होते हैं तो लगता है समय बहुत लम्बा है। जब प्रसन्न होते हैं तो समय का अनुभव नहीं होता है। तो प्रसन्नता या आनन्द क्या है? यह हमारी स्वयं की आत्मा है। यही आत्मतत्व शिव तत्व है या शिव का सिद्धांत है। प्राय: हम जब भगवान की बात करते हैं तो प्रत्येक व्यक्ति तुरन्त ऊपर की ओर देखता है। पर ऊपर कुछ नहीं है। प्रत्येक वस्तु हमारे अन्दर है। अन्दर की तरफ देखना या अपने अन्दर रहना ही ध्यान है। जब तुम अपने किसी नजदीकी व्यक्ति अपने मित्र या किसी अन्य की तरफ देखते हो तो तुम्हें क्या लगता है? तुम्हारे अन्दर कुछ-कुछ होता है। तुम्हें ऐसा अनुभव होता है कि कोई नई ऊर्जा तुम्हारे अन्दर से होकर प्रवाहित हो रही है। उन महान क्षणों को पकड़ो। यह वही महान क्षण हैं जो समयशून्य क्षण होते हैं।  
ईश्वर ने तुमको दुनिया में सभी छोटे-मोटे सुख व आनन्द दिया है लेकिन चरम आनन्द अपने पास रखा है। उस चरम आनन्द को प्राप्त करने के  लिए तुम्हें उस ईश्वर और केवल ईश्वर के पास ही जाना होगा। अपने प्रयासों में निष्ठा रखो। जब तुम इस चरम आनन्द को प्राप्त करते हो तो बाकी प्रत्येक वस्तुएं आनन्दमय हो जाती हैं। ईश्वर को अच्छा समय दो इससे तुम पुरस्कृत होगे। यदि तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार नहीं होती तो इसका मतलब है कि तुमने ईश्वर को अच्छा समय नहीं दिया है। सत्संग और ध्यान को अपनी सबसे ऊंची प्राथमिकता दो। भगवान को सबसे महत्त्वपूर्ण समय दो। इसका तुम्हें अवश्य ही अच्छा पुरस्कार मिलेगा। जब तुम भगवान से कोई वरदान प्राप्त करने की शीघ्रता में नहीं हो तब तुम्हें यह अनुभव होगा कि भगवान तुम्हारा है। सजगता या अभ्यास द्वारा तुम इसी बिन्दु पर पहुंच सकते हो।  
ईश्वर या दैव तुम्हारा है। जब तुम यह जान जाते हो कि तुम पूरे ईश्वरीय सत्ता के  ही एक अंश हो तो तुम उससे कोई मांग करना बन्द कर देते हो। तब तुम जानते हो कि तुम्हारे लिए सब कुछ किया जा रहा है। तुम्हारी देखभाल की जा रही है। मन में शीघ्रता या उतावलापन करना धैर्य की कमी होती है। आलस्य का मतलब आपके क्रिया-कलापों में सुस्ती होती है। इसका सही सूत्र मन में धैर्य और अपने क्रियाकलापों में तेजी होती है।