मिथ्या अहंकार का अर्थ है इस शरीर को आत्मा मानना। जब कोई यह जान जाता है कि वह शरीर नहीं अपितु आत्मा है तो वह वास्तविक अहंकार को प्राप्त होता है। अहंकार तो रहता ही है। मिथ्या अहंकार की र्भत्सना की जाती है वास्तविक अहंकार की नहीं। वैदिक साहित्य में कहा गया है अहं ब्रह्मास्मि- मैं ब्रह्म हूं मैं आत्मा हूं। ‘मै हं’ ही आत्म भाव है और यह आत्म साक्षात्कार की मुक्त अवस्था में भी पाया जाता है। ‘मै हं’ का भाव ही अहंकार है लेकिन जब ‘ मै हं’ भाव को मिथ्या शरीर के लिए प्रयुक्त किया जाता है तो वह मिथ्या अहंकार होता है। जब इस आत्म भाव (स्वरूप) को वास्तविकता के लिए प्रयुक्त किया जाता है तो वह वास्तविक अहंकार होता है। ऐसे कुछ दार्शनिक हैं जो यह कहते हैं कि हमें अपना अहंकार त्यागना चाहिए। लेकिन हम अपने अहंकार को त्यागे कैसे? क्योंकि अहंकार का अर्थ है स्वरूप। लेकिन हमें मिथ्या देहात्मबुद्धि का त्याग करना ही होगा।  
जन्म मृत्यु जरा तथा व्याधि को स्वीकार करने के कष्ट को समझना चाहिए। वैदिक ग्रन्थों में जन्म के अनेक वृत्तान्त है। श्रीमद्भागवत में जन्म से पूर्व की स्थिति माता के गर्भ में बालक के निवास उसके कष्ट आदि का सजीव वर्णन है। चूंकि हम भूल जाते हैं कि माता के गर्भ में हमें कितना कष्ट मिला है अतएवं हम जन्म तथा मृत्यु की पुनरावृत्ति का कोई हल नहीं निकाल पाते। इसी प्रकार मृत्यु के समय भी सभी प्रकार के कष्ट मिलते हैं जिनका उल्लेख प्रामाणिक शास्त्र में हुआ है। इनकी विवेचना की जानी चाहिए। जहां तक रोग तथा वृद्धावस्था का प्रश्न है सबको इनका व्यावहारिक अनुभव है। कोई भी रोगग्रस्त नहीं होना चाहता कोई भी बूढ़ा नहीं होना चाहता लेकिन इनसे बचा नहीं जा सकता। जब तक हम जन्म मृत्यु जरा तथा व्याधि के दुखों को देखते हुए इस भौतिक जीवन के प्रति निराशावादी दृष्टिकोण नहीं बना पाते तब तक आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं रह जाता।