रंगों के उत्सव के बाद चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को शीतला माता की आराधना की जाती है। आम बोलचाल भाषा में इसे बसोड़ा भी कहा जाता है। सेहत की दृष्टि से देखा जाए तो बसोड़ा पर्व होली के बाद मौसम में आने बदलाव के लिए तैयार होने का संदेश देता है। सेहत की रक्षा के लिए सर्वमान्य नियम है कि जब भी मौसम में बदलाव हो तो अपने रहन-सहन और खान-पान भी उसी अनुसार परिवर्तन कर लेना चाहिए अन्यथा कोई रोग आपको जकड़ सकता है। धार्मिक और आयुर्वेद मान्यता के अनुसार हमारी इम्युनिटी पावर को बढ़ाने के लिए इस दिन त्रितापों से मुक्ति दिलाने वाली शीतला माता की पूजा की जाती है।

 शीतला अष्टमी पूजा विधि

स्कंद पुराण के अनुसार ब्रह्माजी ने सृष्टि को सेहदमंद और रोगमुक्त रखने का कार्य शीतला माता को दिया था। यही वजह है कि लोग गर्मी के प्रकोप से बचने और संक्रामक रोगों से मुक्त रहने के लिए शीतला माता की पूजा करते हैं। देवी शीतला स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। मान्यता है कि नेत्र रोग,ज्वर,चेचक,कुष्ठ रोग,फोड़े-फुंसियां तथा अन्य चर्म रोगों से आहत होने पर मां की आराधना रोगमुक्त कर देती है,यही नहीं माता की आराधना करने वाले भक्त के कुल में भी यदि कोई इन रोगों से पीड़ित हो तो ये रोग-दोष दूर हो जाते हैं। शीतला माता के स्वरूप के प्रतीकात्मक अर्थ हैं। मां का स्वरूप हाथों में कलश,सूप,मार्जन(झाड़ू) तथा नीम के पत्ते धारण किए हुए चित्रित किया गया है।

 लाल वस्त्र
उनके वस्त्रों का रंग लाल होता है जो शौर्य,ऊर्जा और सतर्कता का प्रतीक माना जाता है। लाल रंग सौभाग्य की भी निशानी है इसलिए सुहागन स्त्रियां शुभ अवसरों पर इस रंग को अधिक पहनती हैं।

 गर्दभ(गधा)
शीतला माता गर्दभ की सवारी करती हैं। चूंकि यह बहुत धैर्यशाली जानवर है, इसके जरिए देवी का यह संदेश है कि मनुष्य को अपना तन-मन शीतल रखते हुए धैर्य के साथ निरंतर परिश्रम करना चाहिए। इसी से सफलता प्राप्त होती है तथा जीवन सुखमय होता है।

 मार्जनी(झाड़ू)
हाथ में मार्जनी होने का अर्थ है कि हम सभी को सफाई के प्रति जागरूक होना चाहिए,तभी हम बीमारियों से बचे रह सकते हैं।